Story (कहानी)

टीयर ड्रॉप बुंदे
उषा राजे सक्सेना
ग्रेट ब्रिटेन की प्रतिष्ठित एवं चर्चित साहित्यकार

हवा में नमी थी| सारी रात बारिश होती रही शायद इसलिए उसे गहरी नींद आई| आँख खुली तो दीवार पर लगी घड़ी को अधखुली आँखों से देखा| सुबह के छः बजे थे। समीर अभी तक उठा नहीं! सब ठीक तो है न! तकिए में मुँह गड़ाए, वह चुपचाप लेटी सोचती रही फिर उसने बायाँ हाथ बढ़ाकर समीर की देह को टटोला। हाँ..आँ.. शायद उठ गया। कमाल! अभी तक उसने आवाज़ नहीं लगाई। हो क्या गया है आज इस समीर को? यूँ तो रोज़ उसे झंझोड़ते हुए अब तक कई आवाज़ें लगा चुका होता, ‘उठ, कितना सोएगी? छः बज चुके हैं। आज चाय नहीं मिलेगी, क्या?’
फिर याद आया। अरे हाँ, कल तो वह ऑफिस से सीधे ऑडिट के लिए मैनचेस्टर रवाना हो गया था। नींद की अलस में उसे याद ही नहीं रहा। अब जल्दी क्या है सो जा, उसने खुद से कहा। ऐसा सुखद दिन पिछले कई वर्षों में पहली बार मिला है। समीर की नींद तो ठीक साढ़े पाँच बजे ‘डॉट ऑन’ खुल जाती है फिर क्या मजाल वह उसे सोने दे। अपनी टर्र-टर्र टेपरिकार्डर की तरह तब तक लगाए रखता है जब तक उसके हाथ में चाय का कप नहीं आ जाता।
चल बदल करवट और सो जा। आज उठने की कोई जल्दी नहीं। उसने तकिये को थोड़ा तिरछा कर के सिर के नीचे लगाया, पूरे बदन को प्रत्यंचा की तरह ताना और फिर ढीला छोड़, करवट बदल कर थोड़ी देर सिकुड़ी, कुँडली मार पड़ी रही आज पूरी तरह मुक्त है वह। देर तक सोने का कुछ और ही आनंद है, कहते हुए उसने रज़ाई आँखों तक खींच ली। समीर को देर तक और खास कर उसके देर तक सोने से चिढ़ है…..सोचते-सोचते दुबारा कब उसकी आँख लग गई उसे पता ही नहीं चला।
जब आँख खुली तो आठ बज रहे थे। पर्दे की डोरी खीची, जाली हटा कर देखा। आकाश धुंधला स्याह-सफेद! घास, फूल पत्ते सब भीगे-भीगे। सब कुछ धुला धुला। हाथों को सिर के ऊपर उठा कर पूरे बदन को तानते हुए अँगड़ाई ली, फिर देह को ढीला छोड़ते हुए चिड़िया सी चहकी, आज सारे दिन मस्ती! कहाँ चला जाए…..हद है न, ऐसा दर्शनीय और खूबसूरत लंदन… जहाँ हर क़दम पर कोई न कोई आकर्षण! और तू पूछती है कहाँ चला जाए…..कहीं भी…बस निकल पड़।
स्टडी में आकर गुनगुनाते हुए कम्प्यूटर ऑन किया, मौसम की भविष्यवाणी देखी….. सारे दिन सूरज की बादलों के साथ पकड़-छू, साथ में हल्की-हल्की फुहारें…. वाह! समां में जैसे कोई जादू बिखरा हो! मन गुदगुदाया जैसे हवा में मोहक मौन निमंत्रण हो। मैं भी खूब हूँ, उसने मुस्करा कर सोचा। यहाँ लोग सूरज के लिए तरसते हैं और मैं हूँ कि बारिश में भीगना चाहती हूँ। यह ताज़ा-ताज़ा, भीगा-भीगा मौसम, स्फूर्त और नशीला जैसे बिना पिए ही कोई नशा मुझपर तारी हो, अँगड़ाई लेते हुए वह मुस्कराई।
थोड़ी देर वह शावर के नीचे खड़ी रही| तीखे धारवाले गुनगुने पानी ने बदन को गुदगुदाया तो तौलिया उठा, सीने तक लपेट, वह ड्रेसिंग रूम में आई। तौलिया सरका, गीले बदन पर चुस्त नीली जीन्स को कमर तक खींचते हुए, हैंगर पर से लाल कुर्ती उतारने को हाथ बढ़ा ही था कि जाने क्या सोच कर उसने चाइनीज़ कॉलर वाला हरा टॉप पहन लिया। समीर होता तो, कहता नीले जीन्स पर हरी कुर्ती, वह भी चाइनीज़ कॉलरवाली- एकदम तबलची लगती हो। कैसी बकवास पसंद है तुम्हारी……होगी बकवास पसंद समीर के लिए। मेरे लिए तो इट्स अ मैजिकल कॉबीनेशन सोचते हुए उसने सामने पड़े लंबे ‘टीयर ड्रॉप’ हरे बुँदे कानों में डाल लिए। दिस इज़ परफेक्ट। फिर समीर का खयाल आया लंबे ‘टीयर ड्रॉप’ बुँदे वह कहता, ‘रहोगी तुम गँवार की गँवार, कहीं जीन्स पर ऐसे लटकने वाले बुँदे पहने जाते हैं और वह भी चाइनीज़ कॉलर पर’। और जब तक वह उसे उतार नहीं देती, वह मुँह फुलाए बैठा रहता। उसने शीशे में अपनी छवि देखी, ज़बान निकाल कर भौंहें नचाते हुए खुद को मुँह चिढ़ाया और शरारतन चाइनीज़ कॉलर का चौथा बटन खोल दिया, छबीली कुर्सी पर बैठी उसे घूर रही थी उसे घूरता देख वह खिलखिलाकर हँस पड़ी, ‘बदमाश….तू समीर से कम नहीं है… चोरी करती है|’
जीन्स के हिप पॉकेट में वीज़ा कार्ड रख कर मोबाईल फोन को कमर में खोंस हिप-हॉप करते हुए शीशे में आए प्रतिबिंब से बोली, वाह! दोनों हाथ खाली और मन, चिंता-मुक्त! अब लगा धूप का चश्मा और ले दुनिया का जायज़ा! ये हुई न कोई बात! अद्भुत और स्फूर्त, सोचती हुई वह दरवाज़ा खोल कर बाहर निकलने ही वाली थी कि छबीली ने म्याऊँ करते हुए छलाँग लगाई। ओहो! मैडम आपकी कटोरियाँ खाली हैं….उसने प्यार भरी नज़र छबीली पर डाल उसे सहलाया और कटोरियों को पानी और कैट-फूड से भर दिया।
राइट!… टाइम टु मूव नाउ। आज के इस सुहाने, रिमझिम करते दिन को यों ही नहीं जाने देना है। छबीली को दोनों हाथो में भर, टोकरी में बैठाते हुऐ, दरवाज़ा बंदकर बाहर लॉन में खड़ी खुद से कहा, बोल? अब किधर? ट्यूब? ट्रेन? या बस? सिक्का उछालू? पर कैसे? ये तो तीन है। अक्कड़, बक्कड़, बम्बे बो. न…न…न अंडर ग्राउँड से चलते है….पर जाना कहाँ है?….कहीं भी….हाँ ठीक है न, वन-डे ट्रैवेल कार्ड लेते हैं जहाँ मन करे, मुँह उठाओ चल दो…..बस में जाओ, ट्रेन में जाओ, ट्यूब में जाओ चाहे जितनी बार चढ़ो-उतरो। फ्रीडम पास है यह वन-डे टैवेल कार्ड। पहले कहाँ चलें?
सुबह की भीड़ निकल चुकी थी स्टेशन पर एक आध लोग ही थे। लाइन में उसके आगे सिर पर जैक्सन हैट लगाए, लंबा काला कोट पहने, कंधे पर गिटार लटकाए, एक नौजवान वाटरलू का टिकट ले रहा था। बस…बस…बस…आज की शुरुआत वाटरलू ब्रिज, जुबली वॉक फिर वेस्ट मिनिस्टर ब्रिज और पार्लियामेंट हाउस वगैरह की सैर, लेबनीज़ लंच और दोपहर बाद टेट मॉर्डन में कन्टेम्परेरी आर्ट का आनंद…. टिकट-खिड़की पर जा कर बोली, ‘वन-डे ट्रैवेल कार्ड प्लीज़’।
उसके अंदर आते ही ट्रेन झटके के साथ चल पड़ी सामने एक सीट खाली थी इसके पहले कोई और उस पर बैठे वह खट्ट से उस सीट पर बैठी तो बग़लवाली सीट पर बैठे आदमी से टकराई। उसका हैट उछल कर उसकी गोद में आ गिरा। अरे! यह तो वही गिटारवाला है। आँखे मिली तो झेंपी फिर ‘सॉरी’ कहते हुए उसका हैट उसे देते हुए हल्के से हँस पड़ी। वह भी हँस पड़ा, ‘अस्वीकार, आपकी सॉरी अस्वीकार है, आपको इसका दंण्ड भुगतना होगा’ उसने चुटकी ली।
‘अरे वाह! ऐसा क्या दंण्डनीय अपराध! वह तो एक्सीडेंटल था। आप और हैट दोनों इनश्योर्ड है न! ’ उसने भी चुहल की। दोनों एक साथ हँस पड़े। ‘किसी कॉनसर्ट में गाना गाने जा रहे हो क्या?’ उसने गिटार, एंप्लीफायर का केस और चेहरे पर खूबसूरती से कटे फ्रेंच कट दाढ़ी को देखते हुए उत्कंठा से पूछा। ‘नहीं, बस्कर हूँ. महीनों झक मारने और टफ कॉम्पटीशन के बाद पिछले हफ्ते लाइसेंस मिला।’ ‘क्या? बस्किंग! और उसके लिए भी लाइसेंस!’ उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गईं। उसकी राय बस्करों के बारे में अच्छी नहीं थी। वह तो बस्करों को बेघर, काम-चोर, उच्चका और भिखारी समझती थी। ‘जी, ऐसा क्यों कह रही हैं? बस्किंग एक बहुत ही सधा हुआ, गंभीर किंतु आनंददायक कार्य है? प्रसिद्ध गिटार प्लेयर- बॉब डिलन और कैम्ब्रिज के वायलिनिस्ट- नाइजल कैनेट का नाम तो सुना होगा आपने? ’ वह विनोदपूर्ण मुस्कराहट के साथ, सीधा उसकी आँखों में देखता हुआ बोला। ‘कुछ नहीं ऐसे ही’ वह नज़रें चुराती हुई, घबरा कर बोली। शायद उसकी आँखों ने चुगली कर दी। समीर कहता है उसकी आँखे पारदर्शी हैं। कोई बच्चा भी उसके मन में उठते हलचल को पढ़ सकता है। उसने संजीदगी से दिल पर हाथ रख, नाटकीय मुद्रा में झुकते हुए कहा ‘बताइए न। आप जैसे लोग हमारे बारे में क्या सोच रखते हैं?’ ‘ओह! नहीं! नहीं मैं नहीं बता पाउँगी !’ वह जल्दी से कुछ हकलाती हुई सी बोली। अच्छी मुसीबत गले पड़ गई। अब यह बातों का सिलसिला खतम ही नहीं करेगा। अचानक सुरंग में चलती ट्रेन धड़-धड़, खड़-खड़ करने लगी। उसने सोचा चलो अच्छा हुआ इसने उसकी बात नहीं सुनी। वह कोई और जवाब तलाशने लगी। जैसे ही ट्रेन की धड़धड़ाहट सम पर आई, वह बोला, ‘शायद आपकी राय बस्करों के बारे में अच्छी नहीं है.. आप हमें भिखारी समझती हैं। एक कलाकार के लिए बस्किंग अभ्यास और कला प्रदर्शन का खुला मंच है। इसका गलत प्रयोग भी होता है अतः आप पूरी तरह से गलत तो नहीं है…….’ निस्संदेह उसने उसकी चोरी पकड़ ली थी| बाप रे! यह तो बड़ा तेज़ निकला। तबतक वाटरलू स्टेशन आ गया। उसे वहीं उतरना था। वह उतरने की तैयारी करने लगा। उससे छुटकारा पाने के लिए उसने मन बदल लिया सोचा अगले स्टेशन एमबैंकमेंट पर गाड़ी बदल कर सर्किल लाइन लेकर वेस्ट मिनिस्टर पर उतर जाएगी फिर ब्रिज पर टहलते हुए थेम्स के किनारे-किनारे जुबली वॉक से टेट मॉडर्न….
कंधे पर गिटार टाँग, एम्पिलीफायर के बक्से को हाथ में उठाते हुए उसने कहा, ‘रोचक मुलाक़ात रही। मेरा गाना सुनने वाटरलू अंडर ग्राउँड के गलियारे में अवश्य आइएगा। भूलिएगा नहीं। आपके दण्ड का भुकतान अभी बकाया है।’ ‘हाँ-हाँ, ज़रूर। क्यों नहीं। संगीत में मेरी रुचि है.’ वह जल्दबाज़ी में कह बैठी। ‘वादा?’ उसने हाथ मिलाते हुए कहा। ‘हाँ वादा’ उसके होठों से निकल पड़ा।
लो! यह वादा करने की क्या ज़रूरत थी। उसने अपने आप को फटकारा। पर इसमें इतना अपराधबोध क्यों? पकड़ थोड़ी न लेगा! प्रोत्साहित करना भी एक प्रसंशनीय कार्य है। लौटते समय वाटरलू ब्रिज के गलियारे में हेलो कहते हुए अन्य राह चलतों के साथ थोड़ी देर रुक कर उसका गाना सुन लेने में कोई नुकसान तो नहीं होगा। पर मैं अभी से क्यों मग़ज़पच्ची कर रही हूँ। अभी तो सारा दिन पड़ा है। लौटते समय जैसा मन बनेगा बस वैसा ही कर लेंगे।
तो बस्किंग भी एक संयोजित कला है….ऐसा तो मैंने सपने में भी सोचा ही नहीं था। इतने वर्षो से लंदन में रह रही हूँ पर यहाँ के जन-जीवन के बारे में कितना जानती हूँ? अगर लिखने लगूँ तो दो पेज भी प्रमाणिकता से नहीं लिख पाऊँगी। उसके अंदर बैठा रचनाकार अपनी संकुलता पर कुछ आहत- सा हो उठा।
वेस्ट मिनिस्टर स्टेशन से बाहर निकली तो हल्की हल्की फुहारें पड़नी शुरू हो गई थी। ओह! छतरी लेकर चलना चाहिए था। सामने किआस्क से एक छोटी सी छतरी खरीद ली। सिर के ऊपर छतरी तानी ही थी कि धूप निकल आई। फोरकास्ट था न कि आज सूरज बादलों के साथ पकड़-छू खेलेगा। उसने मोबाइल से खटाखट दो-तीन सेल्फ़ी पार्लियामेंट हाउस और वेस्टमिनिस्टर अबे और लंदन आई के साथ खींच लिए और फिर ब्रिज पर चल पड़ी। थेम्स के सीने पर धुंध में लिपटे तरह-तरह के छोटे-बड़े सैलानी जहाज…. वाह! क्या खूबसूरत नज़ारा है जुबली वॉक पर रुक-रुक कर सैर करते हुए वह सोच रही थी कितनी प्राचीन नदी है थेम्स। इसने जाने कितने साम्राज्यों का उत्थान-पतन देखा होगा। पार्लियामेंट की नींव पड़ने के साथ क्रॉमवेल की क्रांति भी देखी होगी। यहीं इसी वेस्ट मिनिस्टर ब्रिज पर खड़ें होकर वर्ड्सवर्थ ने ऐसे ही धुंधलके में सुबह-सुबह वह कविता ‘अपॉन वेस्टमिनिस्टर ब्रिज’ लिखी होगी। क्या तो लाइने थीं…उसने याद करने की कोशिश की पर याद नहीं आईं। सीढ़ियों से उतर कर जुबली वाक पर आ गई। लंदन आई के आस पास हज़ारों लोगो की भीड़ थी। जुबली वॉक पर तरह-तरह के वेशभूषा में स्ट्रीट आर्टिस्ट स्वाँग बनाए, मूर्तियों की तरह खड़े थे। बच्चे तो बच्चे, बड़े भी उनकी कलाकारी और स्थिरता पर विस्मित और चकित थे। उसे याद आया बचपन में जब डपटते हुए नाना जी कभी उसे किसी शरारत पर स्थिर खड़े रहने को कहते तो वह दो मिनट में ही रोना-धोना शुरू कर देती थी। वह उन कलाकारों के धीरज को सलाम करती प्रदर्शनी स्थल पर पहुँच गई।
टेट मॉडर्न में भिन्न-भिन्न कलाकारों के कन्टेम्प्रेरी आर्ट की प्रदर्शनी लगी हुई थी। चित्रों में आकार प्रकार और रंगो का आकर्षक, अद्भुत प्रयोग था। विशेषकर हल्के-कोमल पेस्टल रंगों का। विशेष ऐसा कुछ समझ में तो नहीं आ रहा था किंतु रंगों, शेडस, लकीरों के विभिन्न प्रयोग उसके मन को आलोड़ित और तरंगित अवश्य कर रहे थे। आज कुछ भी करने में आनंद आ रहा है। मन मुक्त जो था।
एक पूरे दीवार पर लगी एक पेंटिंग उसे काफी पसंद आई। देर तक खड़ी वह उसे विभिन्न कोणों से देखती रही। एक पूरा कैनवस और उस पर नीले और हरे रंगों के उतार-चढ़ाव का अदभुत संयोजन! नीले रंग की इधर उधर दौड़ती हुई रेखाएँ बहती हुई नदी की लहरों सी प्रतीत हो रही थी और ऊपर हरे रंग के छोटे- छोटे लंबोतरे धब्बे- वीपिंग विलो-सी झुकी डालियाँ, मानो पूरा का पूरा विलो ट्री झुका हुआ पानी में अपना अक्स देख रहा हो। ‘भई वाह! चित्रकार साहब, आपकी और मेरी पसंद में गज़ब की सामानता है।’ और वह ज़ोर से हँस पड़ी….इतने ज़ोर से कि पास खड़ा मुँह में चुरुट दबाए एक बोहेमियन- सा दिखता आदमी उसे अजीब नज़रों से देखने लगा। ओ माँ! कहीं यह चित्रकार तो नहीं है। ज़रूर इसे बुरा लगा होगा। वह संजीदगी से ‘सॉरी!’ कहते हुए जल्दी से बाहर निकल आई। बाहर निकलने के बाद उसे खयाल आया, क्या पता वह आदमी कौन रहा होगा?….हो सकता है कि वह चित्रकार न होकर उसकी ही तरह मात्र एक दर्शक हो। हाय! अब उसकी हँसी और सॉरी, दोनों ने ही उस आदमी को एक अज़ब से असमंजस में डाल दिया होगा…..आज तो वह उस बोहेमियन को एक पहेली दे आई है। अब वह उसकी हँसी और फिर सॉरी की पहेली को सारे दिन सुलझाता रहेगा। बेचारा बोहेमियन। वह दोबारा फिर हँस पड़ी, अपनी शरारत पर। छात्र जीवन में उसे और अनुजा को ऐसे ही किसी अपरिचित को तंग कर के बड़ा मज़ा आता था।
बाहर निकली तो चारों ओर धुंधलका छाया हुआ था। पुल पर रेलिंग के सहारे खड़ी आँखें गड़ा-गड़ा कर देखने के बावजूद वह मात्र रहस्यमय धुंध में लिपटे समरसेट हाउस, ब्रिज ऑव विमेन पावर, लंदन ब्रिज, सेंटपॉल कथीड्रल का गुम्बद और गर्किन टावर ही देख पा रही थी। हल्की- हल्की फुहार पड़ने लगी। सोचा छतरी खोल ले पर खोला नहीं। ऐसे ही कुछ पल थेम्स नदी के पुल पर खड़ी चेहरे पर गिरती वर्षा की महीन बूँदों का आनंद लेती रही, फिर फेस्टिवल हॉल की तरफ चल पड़ी। कोहरे और धुंध के कारण पता नहीं चल रहा था पर लँच का समय हो चुका था| रेस्तराँ, कॉफी बार और पब में से खाने की खुशबू के साथ संगीत की धीमी स्वर लहरी फिज़ा में जादू बिखेर रही थी। लोग मिल-बैठ, खुलकर जोशोखरोश के साथ ठहाके लगाते हुए बातें कर रहे थे। लंदन के इस विशाल कैनवस पर उसकी भी उपस्थिति है। वह भी लंदन का एक हिस्सा है, सोचकर उसे अच्छा लगा। सामने एक छोटे से लेबनीज़ रेस्तरां को देख कर उसे लगा कि उसे भी कुछ हल्का-सा खा लेना चाहिए। बाहर कैनेपी के नीचे बैठ कर उसने बिना मेनू देखे ही वेटर को आदेश दिया, ‘फाटूश, बकलावा और साथ में भाप निकलती कॉफी लाटे प्लीज़।’
‘सब एक साथ !’ वेटर ने पूछा।
‘हाँ, कोई एतराज है क्या?’
‘जी नहीं! ऐसे ही पूछ लिया।’
उसे लंच में हल्का खाना पसंद है, वह भी गर्म-गर्म कॉफी लाटे के साथ। समीर साथ होता तो बस इंडियन खाना होता। मसालेदार पाँच-छः डिशेज़, फुल ऑव कोल्सट्रल। कई बार वह उसके तोंद पर हाथ फिराते हुए कहती है, ‘मेरे लाफिंग बुडा! कभी जिम भी चले जाया करो।’ समीर तुनतुनाता, ‘क्यो जाउँ जिम? मेरा कोई सिर फिर गया है? अरे! जिस पेट के लिए देश छोड़ा, घर छोड़ा, माँ बाप छोड़ा….तू उसी पर बंदिश लगाना चाहती है…..इस तरह की स्टुपिड चीज़ें तुझे करनी है तो कर….मुझे तो बख़्शो, बाबा!’ और फिर वही मुँह फुला लेना।
लंच समाप्त कर बाहर निकली, काला स्याह आकाश और बड़ी बड़ी बारिश की बूँदों को देख कर सोचा, क्यों न अंदर ही अंदर चल कर वाटरलू ट्यूब स्टेशन के गलियारे में उस बस्कर का गाना सुना जाए। सुबह प्रॉमिस जो कर दिया था। वह निश्चय ही इंतज़ार करेगा। अब अगर नहीं गई तो वह सोचेगा सारे इंडियन्स ऐसे ही बेमुरव्वत और डरपोक होते हैं, और लड़कियाँ तो ख़ासतौर पर। न…न.. मुझे जाना चाहिए, चाहे थोड़ी देर के लिए ही जाउँ….. इस समय मैं अपने पूरे देश का प्रनिधित्व कर रही हूँ। उसे अपने देश पर गर्व हुआ। एक रचनाकार होने के नाते उसे एक उभरते कलाकार का सम्मान कर उसे प्रोत्साहित करना ही चाहिए।
उसे वह खास जगह पता थी जहाँ बस्कर अपने हुनर का प्रदर्शन करते हैं। सात बज रहे थे घर जाने का शीर्ष समय। यात्रियों का रेला एक तरफ से आ रहा था तो दूसरी तरफ से जा रहा था। कुछ यात्री मानो किसी दौड़ में हो, तेज़ी से अपनी रौ में आगे बढ़े जा रहे थे तो कुछ घड़ी दो घड़ी खड़े हो कर उसका गीत सुनते, पसंद आने पर पास रखे बक्से में से सी.डी उठाते और कुछ नोट और सिक्के उसके खुले हुए गिटार केस में उछाल जाते। कुछ एक नाक-भौं सिकोड़ते उस पर संदिग्ध दृष्टि डाल, इस तरह उसे अनदेखा करते मानो वह लंदन का कलंक हो। तीन महिलाएँ और दो पुरुष काफी देर से वहाँ खड़े उसका गीत सुनते रहें। जब वह साँस लेने के लिए रुका तो उन्होंने अपना विज़िटिंग कार्ड उसे पकड़ा, कुछ कहते हुए चार सी.डी उठा, बीस-बीस के तीन नोट केस में डाल गए।
वह कुछ दूरी पर, दीवार के सहारे खड़ी उसे देख रही थी। इस समय वह कुछ झुका हुआ आस पास की दुनिया से बेखबर बड़ी तन्मयता से फ्रैंक सिनाट्रा का गाया गीत ‘फ्लाय मी टु द मून’ गा रहा था। वास्तविक कलाकार ऐसे ही होते है। दुनिया के साथ रहते हुए भी दुनिया से अलग, उसने उसकी तन्मयता अपने अंदर तीव्रता से महसूस किया।
अंतिम गीत ‘ड्रीम अ लिटल ड्रीम ऑफ मी’ के बाद उसने खोजती दृष्टि भीड़ पर फेंकी, शायद उसने उसे देख लिया था इसलिए गीत को एक खूबसूरत मोड़ देकर वह दर्शकों को संबोधित कर के बोला, ‘आज मेरे श्रोताओं के बीच एक भारतीय भी उपस्थित है इस खुशी में एक इंडियन नम्बर….’ और उसने जो ‘मेरा जूता है जापानी, यह पतलून इंलिस्तानी सिर पर लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ की धुन गिटार बजाई, तो वह बस रोने-रोने को हो आई। भीड़ को चीर कर वह उसके सामने पहुँच कर बोली, ‘तुम तो एक ऊँचे दर्ज़े के प्रोफेशनल गायक हो। मुझे आश्चर्य है कि तुमने अभी तक अपना ऑडिशन क्यों नहीं कराया?’ वह हँस पड़ा, ‘ऑडिशन! मुझे तो अभी आत्मविश्वास और अभ्यास की ढेरों आवश्यकता है।’ उसका समय समाप्त हो चुका था, अगला बस्कर उसके जाने की प्रतीक्षा कर रहा था। वह जल्दी जल्दी अपना सामान पैक करते हुए सिर उठा कर बोला, ‘सुनो! तुमने मेरी इतनी प्रशंसा की है, क्या मेरे साथ एक कप कॉफी पीने का निवेदन स्वीकार करोगी?’
‘कॉफी! हाँ, पी सकती हूँ’ उसने घड़ी देखते हुए कहा। उसके अंदर बस्करों की जीवन शैली को जानने और समझने के लिए ढेरों प्रश्न कुलबुला रहे थे।
दोनों गलियारे से निकल कर आए। बारिश थम गई थी, पर आकाश यों ही तना खड़ा था कि अब बरसा। ‘आइए फटाफट सड़क पार कर लें वर्ना बारिश में भीग जाएँगे।’ ‘तुम बारिश में भीगने से इतना डरते हो!’ सड़क पार कराने के लिए उसने अनजाने ही उसकी हथेलियाँ अपने उँगलियों में फँसा लीं ‘अरे नहीं, गिटार और एम्प्लीफायर की चिंता न होती तो तुम्हारे साथ बारिश में भीगते हुए ‘सिंगिग इन द रेन’ गाता।’ ‘बातों में माहिर हो।’ दोनों एक साथ हँस पड़े।
फेस्टिवल हॉल लगभग खाली था। शायद कोई कार्यक्रम अभी थोड़ी देर पहले खतम हुआ था। ‘कौन सी मेज़?’ ‘वह कोने वाली।’ ‘ पिछले आठ घंटे लगातार गाता रहा। ब्रेक लेना याद ही नहीं रहा। ज़ोरों की भूख लग रही है। कॉफी के साथ वेजटेबल सैंडविच और स्पाइसी वेफर्स चलेगा?’
‘साथ में यदि चीज़ केक या लेमन टार्ट दौड़ा दें तो कैसा रहेगा।’ दोनों फिर एक साथ हँस पड़े जैसे पुराने दोस्त हो। ‘आप भी मीठे की शौक़ीन हैं!…..’ वह सिर हिलाते हुए मुस्कराया।
ट्रे लेकर टिल पर पहुँचे तो उसने पर्स खोला, ‘फिफ्टी-फिफ्टी!’ ‘नो… प्लीज… न्योता मेरी तरफ से था ’ उसकी आवाज में कुछ ऐसी अपील थी कि उसने पर्स वापस बैग में रखते हुए सोचा कोई नहीं चलते-चलते दो-एक सी.डी. खरीद लूँगी। हिसाब बराबर हो जाएगा।
ट्रे को मेज़ पर रख, उसको कुर्सी पर ठीक से बैठाने के बाद अपनी कुर्सी बैठते हुए उसने कहा, ‘आज मौसम बड़ा रद्दी रहा पर हाँ, आपका दिन कैसा रहा?’
‘मुझे तो इस तरह का भीगा-भीगा मौसम बड़ा सुहावना लगता है। आज का दिन मैंने पूरे मन से जीया। टेट माडर्न में एक कलाकार से मेरे रंगों के चयन-पसंद का ऐसा मेल रहा कि मैंने उसे जी भर सराहा।’ उसने सहजता से अपने मन की बात कह दी।
‘हाँ कोई कोई दिन ऐसा ही होता है?’
‘आपका दिन कैसा रहा?’
‘बहुत अच्छा। कद्रदान श्रोता मिले। मेरी मंज़िल संगीत की दुनिया है। आठ घंटे लगातार बिना रुके गाता रहा। बस्किंग, अभ्यास और आत्मविश्वास देने वाला ऐसा मंच है जो बहुत पैसा खर्च करने पर भी नहीं मिल सकता है। यहाँ प्रसंशक, आलोचक और कई बार पारखी भी मिल जाते हैं।’
‘मैं…मैं चकित हूँ, कितना कम जानती हूँ।’
‘हम सब कितना कम जानते हैं……..’
और दोनों सैंडविच कुतरते हुए, शीशे पर गिरती वर्षा का बूँदों को देखते देखते अपने-अपने ख़्यालों में खो गए।
सहसा उसकी आवाज़ सुनकर वह चौंकी। ‘आप क्या सोच रही हैं? किसी कविता की पंक्तियाँ….’
‘हाँ, आपको और संगीत के लिए आपकी प्रतिबद्धता देखकर डॉ. सत्येंद्र की एक कविता याद आगई… ‘आश्वस्त मन से/ मनुष्य घास का गट्ठर पकड़े-पकड़े / ऐटलांटिक पार कर सकता है…….’’
‘आश्चर्यजनक पंक्तियाँ…. यह सोच तो बड़ी विशिष्ट है….. यूँ आप भी विशिष्ट हैं।’
‘वह कैसे?’
‘चाइनीज़-कॉलर पर आपके ‘टीयर ड्रॉप’ बुँदे, आपकी विशिष्ट रुचि के परिचायक हैं।’ उसने जाने के लिए खड़े होते हुए स्निग्ध स्वर में कहा, ‘सुबह ही कहना चाह रहा था पर सोचा किसी अजनबी का दिया इस तरह का कटम्प्लीमेंट आपको अच्छा नहीं लगेगा…. चलता हूँ। ’
आभार व्यक्त करने के लिए जब उसने गर्दन मोड़ी तो वह जा चुका था, कानों में पड़े लंबे ‘टीयर ड्रॉप’ बुंदे हल्के से हिले और उसके गर्दन को स्पर्श कर गए।
वह भीगे-भीगे मन के साथ देर तक उस खाली प्याले को देखती रही जिसमें उसने चाय पीया था…..

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